शहर की भाषा | जसिंता केरकेट्टा
मां-बाबा जंगल से जब शहर आए
उनके पास अपनी आदिवासी भाषा थी
जीभ से ज्यादा जो आंख की कोर में रहती थी
पानी की तरह
कोई भी पढ़ सकता था उनका चेहरा
पर इस शहर ने
शहर की भाषा नहीं जानने पर
जंगली कहा
उनका मज़ाक उड़ाया, उन्हें नीचा दिखाया
एक दिन हम बड़े हुए
मां-बाबा ने गांव की भाषा छिपा ली
और शहर में जिंदा रहने के लिए
हमें स़िर्फ शहर की भाषा दी
पर इस शहर ने फिर
अपनी मातृभाषा नहीं जानने पर
हमारा मज़ाक उड़ाया, हमें नीचा दिखाया
एक दिन हमने जाना
दरअसल बात यह नहीं है कि
हम क्या जानते और क्या नहीं जानते हैं
असल बात यह है
कि इस शहर को एक ही भाषा आती है
अपने से भिन्न हर मनुष्य को
हमेशा नीचा दिखाने की भाषा
आज हम दुनिया की तमाम भाषाओं में
कहना चाहते हैं अपनी बात
पर संदेह है कि यह शहर समझता है
अपने से भिन्न किसी भी भाषा की बात ॥
(फेसबुकवरून साभार)
जसिंता केरकेट्टा
जसिंता स्वतंत्र पत्रकार आणि कवयित्री आहेत. त्यांच्या कवितांमधून आदिवासी लोकांच्या व्यथा आणि संघर्ष व्यक्त होतो. ‘अंगोर’ आणि ‘जड़ों की जमीन’ हे त्यांचे कवितासंग्रह प्रसिद्ध आहेत.